
Taliban: 9 अक्टूबर को अफगानिस्तान के अंतरिम विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी भारत पहुंचे। यह दौरा कई मायनों में ऐतिहासिक माना जा रहा है क्योंकि 2021 में अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद यह किसी तालिबानी सरकार के मंत्री की पहली आधिकारिक भारत यात्रा है। हालांकि मुत्तकी की यह यात्रा सिर्फ कूटनीतिक नहीं, बल्कि वैचारिक और ऐतिहासिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि अपने पांच दिवसीय प्रवास के दौरान उनका एक अहम पड़ाव था दारुल उलूम देवबंद।
दारुल उलूम देवबंद को इस्लामी दुनिया में एक अत्यंत प्रभावशाली संस्थान माना जाता है, जिसने 19वीं सदी से अब तक इस्लामी विचारधारा, शिक्षण प्रणाली और धार्मिक सुधारवाद पर गहरी छाप छोड़ी है। (Taliban) देवबंद को तालिबान की वैचारिक जड़ के रूप में भी देखा जाता है। इस यात्रा के माध्यम से यह सवाल एक बार फिर गूंजने लगा है कि तालिबान और देवबंद का रिश्ता कितना सीधा है और कितना पेचीदा?
देवबंद की विचारधारा मूल रूप से एक धार्मिक सुधार आंदोलन थी, जिसकी स्थापना 1866 में ब्रिटिश भारत के देवबंद कस्बे में हुई थी। इसका उद्देश्य इस्लामिक शिक्षाओं को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना और लोक-विश्वासों, चमत्कारों और अंधविश्वासों से इस्लाम को अलग करना था। (Taliban) देवबंद तौहीद अल्लाह की एकता को केंद्र में रखकर ऐसी तमाम परंपराओं का विरोध करता रहा है जो अल्लाह के अलावा किसी और से मदद मांगने या चमत्कारी शक्तियों में विश्वास रखने से जुड़ी हैं। हालांकि यह विचारधारा सूफीवाद के खिलाफ नहीं रही, बल्कि संस्थापक स्वयं सूफी संत थे जिन्होंने सूफी परंपरा को आत्म-संयम और नैतिक शुद्धता से जोड़ा, ना कि चमत्कारों से।
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तालिबान का उभार 1990 के दशक में एक ऐसे राजनीतिक-धार्मिक आंदोलन के रूप में हुआ, जो पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों के देवबंदी मदरसों से निकला। विशेष रूप से अकोड़ा खटक स्थित दारुल उलूम हकानिया को तालिबान की वैचारिक नर्सरी कहा जाता है। (Taliban) इस संस्थान के प्रमुख मौलाना समी उल हक ने दावा किया था कि तालिबान के लगभग 90 प्रतिशत नेता यहीं से पढ़कर निकले हैं। हकानिया मदरसे की वैचारिक नींव भारत के ही देवबंद में रखी गई थी, क्योंकि इसके संस्थापक मौलाना अब्दुल हक देवबंद के छात्र थे। यही बिंदु तालिबान और देवबंद के बीच वैचारिक संबंधों की नींव बनता है।
हालांकि यह रिश्ता जितना स्पष्ट दिखता है, उतना सरल नहीं है। एक ओर जहां दोनों के बीच धार्मिक व्याख्या की समानताएं हैं, वहीं दूसरी ओर जमीनी हकीकत में गंभीर अंतर दिखाई देते हैं। (Taliban) देवबंद की विचारधारा जहां सुधारवादी है और हिंसा को अस्वीकार करती है, वहीं तालिबान की पहचान हिंसा, दमन और राजनीतिक वर्चस्व से जुड़ी रही है। ब्रेनन डी इंग्रेम जैसे शोधकर्ताओं के अनुसार, देवबंदी मदरसों द्वारा जारी किए गए फतवे भले ही कुछ रस्मों की आलोचना करते हों, लेकिन वे किसी भी प्रकार की हिंसा, हत्या या आतंकवाद को जायज़ नहीं ठहराते।
तालिबान की हिंसक प्रवृत्ति की जड़ें धार्मिक शिक्षा में नहीं, बल्कि सियासत और ऐतिहासिक परिस्थितियों में हैं। 1980 के दशक में जब सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर हमला किया, तब पाकिस्तान के मदरसों से पढ़े हुए हजारों छात्र ‘मुजाहिदीन’ के रूप में जंग में कूद पड़े। (Taliban) दशकों तक चलती रही इस लड़ाई ने धार्मिक विचारधारा को सैन्य रणनीति, राजनीतिक एजेंडा और क्षेत्रीय वर्चस्व के साथ मिला दिया। देवबंदी विचारधारा का यह “छोटा बिंदु”, जो पहले सिर्फ धार्मिक सुधार तक सीमित था, अब एक राजनीतिक हथियार बन गया।
मुत्तकी की देवबंद यात्रा सिर्फ एक शिष्टाचार नहीं, बल्कि एक प्रतीक है एक ऐसे आंदोलन की ओर लौटने का संकेत जो अपने मूल रूप में शिक्षा, आध्यात्मिकता और सुधार पर आधारित था। (Taliban) लेकिन यह सवाल अभी भी खड़ा है कि क्या तालिबान, जो अब एक राजनीतिक सत्ता है, वास्तव में उस वैचारिक अनुशासन और नैतिक आत्म-संयम की ओर लौट सकता है जिसे देवबंद ने कभी बढ़ावा दिया था?
भारत सरकार इस यात्रा को लेकर अब तक सतर्क चुप्पी बनाए हुए है, लेकिन यह स्पष्ट है कि मुत्तकी की देवबंद यात्रा सिर्फ एक धार्मिक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि राजनीतिक संदेशों से भी भरी हुई है। (Taliban) आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि इस मुलाकात से तालिबान और भारत के रिश्तों में कोई नया मोड़ आता है या नहीं, और क्या देवबंद एक बार फिर अपने विचारधारात्मक प्रभाव से वैश्विक विमर्श में एक नई भूमिका निभा पाता है।